18 वीं shatabdi में Bharat की स्थिति (राजनीतिक स्थिति) Notes Hindi

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18 वीं शताब्दी में भारत की स्थिति

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18वीं सदी के मध्य भारत की राजनीतिक स्थिति

18वीं शताब्दी में भारत में दो महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए  - 

    ◆ पहला शताब्दी के पूर्वार्द्ध में मुगल साम्राज्य से क्षेत्रीय शक्तियों में सत्ता हस्तांतरण 

    ◆ दूसरा राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक क्षेत्रो में आए परिवर्तन। 

● इन परिवर्तनों ने सता के ढांचे को पूरी तरह

बदल दिया तथा बहुत से महत्त्वपूर्ण सामाजिक तथा आर्थिक परिवर्तनों की शुरूआत की।

18वीं शताब्दी में अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी अपनी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा के लिए मौके की तलाश में थी। 

● मुगल सत्ता के पतन ने कई क्षेत्रीय शक्तियों को जन्म दिया। इस Post में हम देश में इन्हीं क्षेत्रीय शक्तियों के उदय का अध्ययन करेंगे। 

● आक्रामक ब्रिटिश नीतियों ने आर्थिक स्थिति को प्रभावित किया। 

कृषि तथा गैर कृषि उत्पादन में भी बदलाव आया।वाणिज्यिक गतिविधियां भी अछूती न रह सकीं।

आधुनिक भारत के इतिहास (1747- 1947 ई.) को सामाजिक परिवर्तन, आर्थिक संक्रमण, राजनीतिक परिवर्तनों और संघर्षों का विवरण कहा जा सकता है ।

● इस काल में होने वाले विभिन्न परिवर्तन किसी एक निश्चित घटनाक्रम का परिणाम नहीं थे, अपितु यह सब एक लम्बी अवधि में भारतीय समाज एवं स्थानीय राजनीति तथा साम्राज्यवादी शक्ति के परस्पर दबाव और निहित स्वार्थो के सामूहिक परिणाम थे।

● जिसका आरम्भ मुगल साम्राज्य के पतन के साथ हुआ।

मुगल साम्राज्य अपने समकालीन साम्राज्यों के लिए ईर्ष्या का विषय था, लेकिन 1707 ई. में औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद मुगल साम्राज्य पतन की ओर अग्रसर होने लगा।

मुगल साम्राज्य का पतन अठारहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध की युगान्तरकारी घटना थी । 

● मुगल बादशाहों ने अब अपनी सत्ता और प्रतिष्ठा खो दी और उनका साम्राज्य दिल्ली के आस-पास ही कुछ वर्ग मील तक सीमित होकर रह गया । 

● वस्तुत: 18वीं सदी में भारत राजनीतिक रुप से विभाजित हो गया था । 

● मुगल साम्राज्य के खण्डों से भारत में विभिन्न स्वतंत्र अथवा अर्द्ध-स्वतंत्र राज्यों का निर्माण हुआ। क्षेत्रीय शक्तियों के उदय ने भारतीय राजनीतिक मानचित्र को ही बदल दिया था।

● तब से भारतीय राजनीतिक इतिहास में एक नये युग का प्रारम्भ होता है।

● इन नवोदित शक्तियों में बंगाल, अवध, हैदराबाद, मैसूर और मराठा राज्य प्रमुख हैं।

● भारत पर अपना प्रभुत्व कायम करने के लिए ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी को इन्हीं शक्तियों पर विजय प्राप्त करनी पड़ी थी।

18वीं सदी के अन्तिम चरण में रणजीतसिंह ने पंजाब, कश्मीर तथा उत्तर-पश्चिम भारत के अधिकांश भाग को विजय करके सिक्खों के शक्तिशाली राज्य का निर्माण करने में सफलता प्राप्त की । 

● छोटे राज्यों में रुहेलखण्ड, केरल, कर्नाटक और भरतपुर प्रमुख थे । 

राजस्थान में राजपूत राज्य स्वतंत्र हो गये, लेकिन वे आपस में निरन्तर संघर्ष करते रहते थे।

● उनमें से कोई भी राजपूताना के गौरव को पुन: स्थापित नहीं कर सका । 

● ये सभी बड़े और छोटे राज्य उन्हीं कमजोरियों से ग्रस्त थे, जिन कमजोरियों ने मुगल साम्राज्य को नष्ट कर दिया था । 

● इन सभी राज्यों के शासकों की विचारधारा प्राय: मध्यकालीन थी।

● इनमें से प्रत्येक भारत को आधुनिक विचार और साधन उपलब्ध कराने में विफल रहा।

● यद्यपि 18वीं सदी के इस राजनीतिक उथल-पुथल और संघर्ष के समय में अधिकांशतया मराठे भारत की सर्वश्रेष्ठ शक्ति बने रहे । 

● लेकिन वे केवल मुगल बादशाह को अपना पेंशनर बनाने से ही सन्तुष्ट हो गये।

18वीं सदी के समाप्त होने तक यह स्पष्ट हो गया कि भारत की सत्ता के लिए उनके मुख्य तथा शक्तिशाली प्रतिद्वंदी अंग्रेज़ थे । 

● मुगल साम्राज्य के पतन का सबसे महत्वपूर्ण परिणाम यह हुआ कि इसने ब्रिटिश शासकों के लिए भारत विजय का रास्ता आसान कर दिया । 

● भारतीय शक्तियों के बीच से कोई भी शक्ति मुगलों की विरासत का दावा करने के लिए सामने नहीं आई । वे साम्राज्य को नष्ट करने के लिए काफी हद तक शक्तिशाली थीं, लेकिन उसे एकता के सूत्र में बांधने या उसकी जगह कोई नया विकल्प लाने में वे समर्थ नहीं थीं । 

● वे कोई ऐसी नई समाज व्यवस्था नहीं बना सके जो पश्चिम से आने वाले नये शत्रुओं का सामना कर पाती।

● वे न अपनी रक्षा कर सके और न अपने नागरिकों के सम्मान और आर्थिक हितों की रक्षा कर पाए । 

● इस कारण एक-एक कर सभी अंग्रेजों से पराजित हुए ।

● उनमें से कुछ के राज्य छोटे कर दिए गए। 

● जिन राज्यों का अस्तित्व बना रह सका,वै भी अंग्रेजों के अधीनस्थ राज्य बनकर रहे । 

● इस प्रकार देश के सदियों पुराने सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक ढांचे की जगह अंग्रेजों द्वारा एक औपनिवेशिक ढांचा स्थापित किया गया, जिसका उद्देश्य अपने आर्थिक-राजनीतिक हितों को पूरा करना था।



मुगल साम्राज्य का पतन/मुगल साम्रज्य का समापन

 


● सन 1707 ई. में जब औरंगजेब की मृत्यु हुई, तब क्षेत्रीय शक्तियों से गंभीर चुनौतियां मिलना प्रारंभ हो गया था, जिसने समस्याओं को साम्राज्य के ठीक केन्द्र में बलपूर्वक प्रकट करना शुरू किया। 

● नए शासक बहादुर शाह प्रथम (उर्फ शाह आलम, 1707-12) ने समझौते की नीति अपनाई, उसने उन सभी दरबारियों को माफ कर दिया, जिन्होंने उसके विद्रोहियों का साथ दिया था। 

● उसने उन्हें समुचित क्षेत्र तथा पद प्रदान किए। उसने ज़जिया हालाँकि नहीं हटाया परंतु एकत्र करने का अधिक प्रयत्न भी नहीं किया।

● आरंभ मे उसने राजपूत क्षेत्र के आमेर (वर्तमान जयपुर) तथा जोधपुर के राजा पर नियंत्रण स्थापित करने का प्रयास किया था।

● जब उसके प्रयासों का विरोध होने लगा तो उसने उनके साथ समझौते की आवश्यकता का अनुभव किया। 

● हालांकि यह समझौता भी उन्हें मुगलों के प्रति कटिबद्ध योद्धा न बना सका। 

● मुगल बादशाह की मराठों के प्रति नीति भी आधी-अधूरी समझौतावादी ही थी। 

● मराठा आपस में तथा मुगलों से संघर्ष करने

में ही उलझे रहे। बहादुरशाह हालांकि दक्कन में बुंदेला प्रमुख छत्रसाल तथा जाट सरदार

चूड़ामन के साथ समझौता करने में सफल रहा, जिसमें जाट प्रमुख ने सिक्खों के विरुद्ध अभियान में उसकी सहायता की थी।

● जहाँदार शाह (1712-1713) बेहद ही कमजोर तथा अयोग्य शासक था। उसके वजीर जुल्फकार खान ने साम्राज्य चलाने की शक्तियां छिन लीं।

● जुल्फकार ने महसूस किया कि शासन संचालन के लिए राजपूतों तथा मराठों के साथ मित्रातापूर्ण संबंध बनाए रखने में ही भलाई है शासन की सलामती के लिए हिन्दू प्रमुखों के साथ समझौता अनिवार्य है।

● उसने औरंगजेब की नीतियों को उलट दिया। घृणास्पद ज़जिया कर हटा दिया गया, उसने सिक्खों के खिलाफ दबाव वाली नीति का ही अनुसरण किया। 

●उसका लक्ष्य उन सभी शक्तियों के साथ सुलह करना था, जो मुगल संस्थागत ढांचे में सत्ता बांटना चाहती थी। 

● जुल्फिकार ने आर्थिक व्यवस्था में सुधार के भी कई प्रयास किए।

● वह राज्य में राजस्व संचरण में वृद्धि करने के प्रयास में असफल रहा। जब कत्ल किए गए राजकुमार अजीमुशशान के पुत्र फारुख/सियार ने जहांदार शाह तथा जुल्फिकार खान को बंगाल तथा बिहार से लाए अपार धन तथा विशाल सेना के साथ ललकारा तो मुगल शासकों ने अपनी तिज़ोरी को एकदम खाली पाया। 

● निराशा में उन्होंने अपने ही महल की लूटपाट की, यहां तक कि छत दीवारों से सोने चांदी को नोच लिया जिससे विशाल सेना का खर्च वहन कर सकें

● फारुख/सियार (1713-19) ने विजय हासिल

की तथा सैय्यद बंधुओं अब्दुल्लाखान हुसैन अली खान बरहा को उच्च पद प्रदान किए।

● सैय्यद बंधुओं ने वजीर तथा मुख्य बक्शी की उपाधि धारण की तथा शासन के कामकाज पर नियंत्रण स्थापित किया। 

● उन्होंने जुल्फकार की नीतियों को ही आगे बढ़ाया। 

● ज़जिया तथा अन्य अलोकप्रिय कर तत्काल हटा दिए गए। 

● सैय्यद बंधुओं ने सिक्ख विद्रोह को निर्णायक रूप से दबा दिया वही राजपूत, मराठों तथा जाटों के साथ सुलह समझौते का प्रयत्न किया गया।

● हालांकि सम्राट एवं वजीर के बीच मतभेदों की वजह से यह नीति लागू नहीं हो पाई क्योंकि गुटबाजी प्रारंभ हो गई थी। 

● जाट एक बार फिर आगरा दिल्ली मार्ग पर छापामारी के कामों में संलग्न हो गए।

● फारुक/सियार ने राजा जय सिंह को आक्रामक अभियान चलाने को कहा, किंतु वजीर ने राजा की जान का ही सौदा करने का समझौता किया। 

● इसका परिणाम यह हुआ कि संपूर्ण उत्तर भारत में या तो जमींदारों ने विद्रोह कर दिया या फिर जमा किए राजस्व को राजकोष में देने से इंकार कर दिया।

● इधर फरुखसियर ने मराठी सरदारों को दक्कन के सूबेदार की सेनाओं का विरोध करने का गुजारिशी पत्रा लिख दक्कन की समस्याओं को और जटिल बना दिया, क्योंकि दक्कन का सूबेदार सैय्यद हुसैन अली खान का प्रतिनिधि तथा सहयोगी था। 

● अंततः 1719 में सैय्यद बंधु जोधपुर से अजीत सिंह तथा मराठा सेनाओं को बादशाह को

पदच्युत करने के लिए ले आए।

● फखरुर्सियार के कत्ल ने सैय्यद बंधुओं के खिलाफ संभ्रात कुलों में विद्रोह की आग जला दी।

● ये वर्ग सैय्यद बंधुओं की बढ़ती शक्ति से भी ईर्ष्या रखते थे। 

● इनमें से कई अमीरों, मुख्यतः औरंगजेब के समय के पुराने अमीरों ने राजस्व कृषि को वजीर के प्रोत्साहन के प्रति गुस्सा किया, जो उनके अनुसार मुगल शासन कला की धारणा का खुलेआम

उल्लंघन था। 

● फखरुर्सियर के स्थान पर सैय्यद बंधुओं ने 8 माह में तीन युवा राजकुमारों को एक के बाद एक गद्दी सौंपी। 

● दो राजकुमार रफी-उर-दरजात तथा रफी-उद-दवताह तो क्षयरोग की वजह से मृत्यु को प्राप्त हुए, किंतु तीसरे राजकुमार जिसने मुहम्मदशाह की उपाधि धारण की थी, ने सैय्यद बंधुओं के नियंत्राण से बाहर निकलने के लिए समुचित शक्ति का उपयोग किया।

● निजाम-उल-मुल्क, चिनकिलच खान तथा उसके पिता के चचेरे भाई मुहम्मद अमीन खान के नेतृत्व में एक शक्तिशाली समूह का संगठन हुआ तथा इन प्रभावशाली अमीरों ने अंततः सैय्यद बंधुओं को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाया । 

● जिस समय मुहम्मद शाह (1719-1748) गद्दी पर बैठा, तब राजा तथा अमीरों के आपसी रिश्ते

एकदम बदल चुके थे। 

● अमीरों के व्यक्तिगत स्वार्थ की छाया राजनीति तथा शासन की गतिविधियों पर पड़नी प्रारंभ हो गई थी। 

● सन 1720 में सैय्यद अब्दुल्ला खान के स्थान

पर मुहम्मद अमीन खान वजीर बना। 

● सन 1720 में अमीन खान की मृत्यु के पश्चात थोड़े समय के लिए यह पद निजाम-उल-मुल्क की झोली में गया क्योंकि जुलाई 1724 ई. में अमीन खान के पु़त्र कमर-उद-दीन ने वंशानुगत अधिकार का दावा कर वजीर पद पर कब्जा जमा लिया।

● अमीर खुद ही नियुक्तियों का निर्देश देते थे।

● इस समय तक अमीरों के पास बहुत ज्यादा शक्तियां आ चुकी थीं। वे अपने स्वार्थ हेतु बादशाह के नाम का फरमान जारी करवाया करते थे।

● बादशाह की स्थिति मात्र कठपुतली की हो गई थी, जिसके पास शक्ति नहीं थी। 

● असली शक्ति अमीरों के संघों के हाथों में थी। अमीर पूरे साम्राज्य की गतिविधियों को केन्द्र से नियंत्रित करते थे, यहां तक कि उन्हें उन राज्यों की स्थिरता की भी काफी फिक्र थी, जहां उनकी जागीरें थीं। 

● बादशाह के नाम पर शासकों तथा फौजदारों तथा अन्य स्थानीय कार्यालयों को फरमान (कुछ अधिकार प्रदान करने का जनादेश या विशेषाधिकार) भेजे जाते थे। 

औरंगजेब के उत्तराधिकारियों की व्यक्तिगत असफलताओं ने शाही सत्ता , प्रतिष्ठा का भी क्षय किया। 

● जहांदार शाह में बड़प्पन तथा शालीनता का अभाव था, फरुखसियार अस्थिर बुद्धि का था, मुहम्मदशाह छिछोरा था तथा आराम पसंद और विलासिता का शौकीन था। 

● बादशाह से निकटता क्षेत्रिय स्तर पर भी नियुक्ति, पदोन्नति तथा निलंबन का कारण बनती थी।

● मुगल साम्राज्य की एकता तथा सुदढ़ता औरंगजेब के लंबे तथा मजबूत शासन के दौरान ही विखंडित होने लगी थी। 

● हालाँकि कुछ झटकों तथा विकट स्थितियों के बावजुद मुगल प्रशासन काफी सक्षम था तथा उसकी मृत्यु के समय 1707 ई. तक मुगल सेना भी काफी मजबूत स्थिति में थी। 

● इस वर्ष को आम तौर पर महान मुगल तथा

लघु मुगलों के काल में अंतर स्पष्ट करने के लिए किया जाता है। 

● औरंगजेब की मत्यु के पश्चात मुगल सत्ता कमजोर हो गई तथा अपने विशाल साम्राज्य के हर हिस्से पर नियंत्रण स्थापित करने की शक्ति अब उसमें न रही। 

● फलतः कई क्षेत्रीय सूबेदारों ने अपनी सत्ता का दावा करना प्रारंभ कर दिया। 

● नतीजतन कई मुगल सुबेदारों ने खुद को स्वतंत्र घोषित कर दिया। 

● कुछ नए क्षेत्रीय समूह भी उभरे तथा संगठित हुए तथा इन्हीं घटनाओं के बीच राजनीतिक शक्ति बनकर उभरे। 

● 1707 से लेकर पानीपत के तृतीय युद्ध 1761 ई (जिसमें अहमद शाह अब्दाली ने मराठा शासकों को पराजित किया) तक की अवधि क्षेत्रिय शक्तियों के पुनः उदय की साक्षी बनी, जिसने राजनीतिक तथा आर्थिक विकेन्द्रीकरण व्यवस्था को जन्म दिया।

● इसी समय तमाम राजनीतिक तथा सैन्य उठापठक के बावजूद स्थानीय कच्चा माल, हस्तशिल्प तथा अनाजों के क्षेत्रिय तथा अन्तरक्षेत्रीय व्यापार ने राजनीतिक व सैन्य संबंधों पर गौर किए बिना आर्थिक परस्पर निर्भरता के प्रगाढ़ रिश्तों का निर्माण किया।

18वीं सदी का पूर्वार्द्ध मुगल साम्राज्य के पतन और विघटन का काल रहा है।

● इस काल में मुगल बादशाहों की सत्ता और महिमा नष्ट हो गई और उनका साम्राज्य दिल्ली के आस-पास सिमटकर रह गया । 

● अंत में 1803 ई. में दिल्ली पर भी ब्रिटिश सेना का अधिकार हो गया और मुगल बादशाह एक विदेशी शक्ति का पेंशनर बन गया ।

मुगल साम्राज्य की एकता और स्थिरता औरंगज़ेब के लम्बे और कठोर शासन के अन्तर्गत चरमराने लगी थीं । 

● लेकिन उसकी अनेक हानिकारक नीतियों के बाद भी 1707 ई. में उसकी मृत्यु के समय तक मुगल प्रशासन काफी कुशल था और मुगल सेना काफी शाक्तिशाली थी । 

● साथ ही देश में मुगल राजवंश की प्रतिष्ठा भी कायम थीं । 

औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात् मुगल साम्राज्य पतन की ओर बढ़ चला और पूरे देश में मुगल सत्ता कमज़ोर होने लगी । 

● जिसके परिणामस्वरुप देश में अराजकता और व्यापक अशांति का वातावरण बना । 

औरंगज़ेब के उत्तराधिकारी अयोग्य एवं शक्तिहीन थे।

● उनमें इतनी क्षमता नहीं थी कि वे विशाल मुगल साम्राज्य को एकता के सूत्र में बांध सकें ।

● महत्वाकांक्षी और स्वार्थी सरदारों, विदेशी आक्रमणों तथा उभरती हुई मराठा शक्ति ने मुगल-साम्राज्य को अनेक टुकड़ों में बांट दिया ।

अठारहवीं सदी के पूर्वार्द्ध में अनेक छोटे-छोटे स्वतंत्र राज्य भारत में स्थापित हो चुके थे।

● तत्कालीन परिस्थितियों मे मराठे ही सर्वोच्च शक्ति के रुप में उभरे थे । लेकिन वे भी भारत में राजनीतिक एकता और शासन-व्यावस्था स्थिर रखने में विफल रहे । 

● तब एक विदेशी शक्ति अंग्रेजों ने अवसर का लाभ उठाकर अपनी कुशलता तथा कूटनीति से भारत में अपना साम्राज्य स्थापित किया ।

● 1857 तक मुगल बादशाह अंग्रेजों के लिए राजनीतिक मोहरा बने रहे ।

● 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के असफल रहने के बाद मुगल वंश अंतिम रुप से समाप्त कर दिया गया ।


क्षेत्रीय शक्तियों का उदय

● मुगल साम्राज्य के कमजोर होने और पतन की ओर बढ़ने के साथ-साथ देश में स्थानीय राजनीतिक और आर्थिक शक्तियां उभरने लगीं और दबाव बढ़ाने लगीं।

● 18 वीं सदी में मुगल साम्राज्य और उसकी राजनीतिक व्यवस्था के अवशेषों पर अनेक स्वतंत्र और अर्ध-स्वतंत्र शक्तियों का उदय हुआ।

● क्षेत्रीय शक्तियों ने तुरन्त मुगल साम्राज्य के पतन से उत्पन्न खाली जगह को भर दिया।

● 18वीं सदी में क्षेत्रीय शक्तियों के रुप में तीन प्रकार के राज्यों का उदय हुआ।

● इनमें से प्रथम श्रेणी में उत्तराधिकार वाले राज्यों को रखा जा सकता है । जिनमें अवध, हैदराबाद और बंगाल के राज्य प्रमुख थे। मुगल साम्राज्य की केन्द्रीय शक्ति के कमजोर हो जाने पर इन मुगल प्रांतों के सूबेदारों ने स्वतंत्र होने का दावा किया, और इन राज्यों का जन्म हुआ। 

● दूसरी श्रेणी, उन नवस्थापित राज्यों की थी, जिनकी उत्पत्ति मुगल शासन के खिलाफ स्थानीय सरदारों, जमींदारों तथा किसानों के विद्रोह के कारण हुई थी, जिनमें मराठा जाट, सिक्ख एवं रुहेलखण्ड के राज्य प्रमुख हैं । 

● तीसरी श्रेणी उन राज्यों ' की थी, जो स्वतंत्र थे और पहले से उनका अस्तित्व विद्यमान था तथा जो मुगलों के अधीन थे | इस श्रेणी में मैसूर, राजपूत राज्य व केरल के राज्य सम्मिलित थे ।

● 18वीं सदी के सभी राज्यों के शासकों ने मुगल सम्राट की नाम मात्र की सर्वोच्चता स्वीकार कर और उसके प्रतिनिधि के रुप में स्वीकृति प्राप्त कर, अपने पद को वैधता प्रदान करने की कोशिश की थी।

● फिर भी इनमें से लगभग सभी ने मुगल प्रशासन की शैली और उसकी पद्धति को अपनाया था।

● पहले समूह के राज्यों ने उत्तराधिकार के रुप में कार्य विधि, मुगल प्रशासनिक ढांचा और मुगल संस्थाओं को अपनाया था । 

● अन्य राज्यों ने अलग-अलग मात्रा में थोड़ा बहुत परिवर्तन करके इसी प्रशासनिक ढांचे और इन संस्थाओं को अपनाया था । इसमें मुगल राजस्व-व्यवस्था भी शामिल थी।

 


मुगल साम्राज्य के उत्तराधिकारी राज्य

● हैदराबाद, बंगाल तथा अवध ऐसे राज्य थे जो मुगलों के द्वारा नियुक्त सूबेदारों के प्रशासन के अन्तर्गत थे । 

● मुगल प्रशासन में सामान्यत: सूबेदारों का स्थानान्तरण होता रहता था किन्तु इन तीन स्थानों पर सूबेदारों की नियुक्ति उत्तराधिकार के आधार पर होती रही थी । 

● मुगल साम्राज्य के पतनकाल में इन सूबेदारों ने स्वतंत्र राज्यों की स्थापना कर ली । 

● फिर भी इन राज्यों ने मुगल सत्ता से अपने सम्बन्ध पूरी तरह समाप्त नहीं किए तथा नाममात्र के सम्बन्ध बनाकर रखे ।

● 1739 ई. में नादिरशाह के आक्रमण के समय अवध तथा हैदराबाद के नवाब एवं निजाम ने दिल्ली पहुंचकर मुगलों की सहायता की। इन राज्यों के उदय का विवरण निम्न प्रकार :-


हैदराबाद

 


● हैदराबाद के स्वतंत्र राज्य की स्थापना चिनकिलीच खां ने 1724 ई. में की थी, जिसको बाद में मुगल बादशाह ने 'निज़ाम-एल-मुल्क आसफ़जहां की उपाधि प्रदान की । 

● औरंगजेब के बाद के नवाबों में उसका महत्वपूर्ण स्थान था।

● 1713 ई. में उसे दक्षिण का सूबेदार नियुक्त किया गया था। 

● सैय्यद बंधुओं को गद्दी से हटाने में उसकी महत्वपूर्ण भूमिका रही थी ।

● 1720 से 1722 के बीच उसने दक्षिण में अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली थी।

● वह 1722 से 1724 ई. तक मुगल साम्राज्य का वज़ीर रहा ।

● निजाम ने दिल्ली दरबार की षड्यंत्रपूर्ण राजनीति, सम्राट की अयोग्यता और सूबेदारों की मनमानी देखकर अनुभव किया कि वह वजीर के रुप में कुछ भी करने में असमर्थ है । 

● सम्भवत: बादशाह मुहम्मद शाह ने प्रशासन में सुधार लाने की सभी कोशिशों को विफल कर दिया था । 

● अतएव उसने वापस दक्षिण जाने का निश्चय किया । जहां वह अपना स्वतंत्र शासन स्थापित रख सकता था ।

● 1724 ई. में निजाम ने हैदराबाद पर अधिकार कर लिया । 

● उसी समय से दक्षिण भारत में हैदराबाद के स्वतंत्र राज्य की नींव पड़ी और हैदराबाद नगर उसकी राजधानी बना।

● उसने केन्द्रीय सरकार से अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कभी नहीं की, लेकिन व्यवहार में एक स्वतंत्र शासक के रुप में कार्य किया । 

● यद्यपि उसने अपने नाम के सिक्के नहीं चलाये और न राज्य-छत्र ग्रहण किया, लेकिन उसने दिल्ली की केन्द्रीय सरकार से पूछे बगैर युद्ध किए, संधियां की, खिताब बांटे और जागीर तथा पद दिए । 

● मुगल बादशाह ने तब विवशता में अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा करते हुए निजाम-उल-मुल्क को दक्कन का सूबेदार नियुक्त किया और उसे 'आसफजहां की उपाधि प्रदान की। 

● उसने दक्कन के छ: सूबे भी दिए गए ।

● तत्कालीन परिस्थतियों में वह भी मुगल दरबार से अपने सम्बंध पूरी तरह नहीं तोड़ना चाहता था।

● अत: उसने मुगल सत्ता के साथ प्रतीकात्मक सम्बन्ध कायम रखे ।

● उसने दिसम्बर, 1737 ई. में पेशवा बाजीराव के साथ युद्ध किया, जिसमें वह पराजित हुआ।

● 1739 ई. में दिल्ली पर नादिरशाह के आक्रमण के समय निजाम ने मुगल बादशाह की ओर से नादिरशाह के विरुद्ध करनाल के युद्ध में भाग लिया।

● इस युद्ध में नादिरशाह विजयी रहा । 

● निजाम नादिरशाह से समझौता कराने में असफल रहा और हैदराबाद वापस लौट आया ।

● उसके बाद उसने कभी भी दिल्ली की राजनीति में हस्तक्षेप नहीं किया । 

● निजाम अनेक कठिनाइयों व चुनौतियों का सामना करते हुए हैदराबाद राज्य को राजनीतिक शिखर पर पहुंचाने में सफल रहा।

● उसने अपने राज्य की सीमाएं ताप्ती नदी से लेकर कर्नाटक, मैसूर और चित्रनापल्ली तक बढ़ा लीं।

● उसने हिन्दुओं के प्रति सहिष्णुता की नीति अपनाई । उदाहरण के लिए उसका दीवान पूरनचंद नामक हिन्दू था। उसने दक्षिण में मुगलों के जैसी जागीरदारी प्रथा चलाकर सुव्यवस्थित प्रशासन स्थापित किया और अपनी स्थिति मजबूत की।

● उसने बड़े उपद्रवी जमींदारों को अपनी सत्ता मानने के लिए बाध्य किया और शक्तिशाली मराठों को अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर रखा ।

● 1748 ई. में उसकी मृत्यु के बाद हैदराबाद राज्य भी उन्हीं विघटनकारी शक्तियों का शिकार हो गया जो दिल्ली में सक्रिय थीं । 

● उसके पुत्र नासिरजंग और पौत्र मुजफ्फरजंग में गद्दी के लिए संघर्ष हुआ । 

● इस संघर्ष में नासिरजंग ने अंग्रेजों से सहायता ली और मुजफ्फरजंग ने फ्रांसीसियों से सहायता प्राप्त की, जिसके परिणामस्वरुप हैदराबाद की राजनीतिक दुर्बलताएं तो सामने आयी ही, साथ ही विदेशी व्यापारिक कम्पनियों को भारत के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप करने का मौका भी मिला  हैदरअली के नेतृत्व में मैसूर राज्य की शक्ति का विस्तार हुआ और मराठे भी निरन्तर शक्तिशाली होते गये । 

● इन दोनों शक्तियों ने भी हैदराबाद राज्य के लिए कठिनाइयाँ उत्पन्न की । 

● वस्तुत: निजाम-उल-मुल्क की मृत्यु के बाद हैदराबाद के शासकों का दक्षिण भारत की राजनीति में सम्मानजनक स्थान नहीं रहा । 

● हैदराबाद का कोई भी शासक योग्य सिद्ध नहीं हुआ । 

● परिणामत: 1798 ई. में हैदराबाद के तत्कालीन निजाम ने वैलेजली से सहायक संधि को स्वीकार कर लिया । 

● तब से हैदराबाद के शासक अंग्रेजों पर आश्रित हो गये ।

 


कर्नाटक

● कर्नाटक, दक्षिणी मुगल साम्राज्य के अन्तर्गत एक सूबा था ।

● उसे हैदराबाद के निजाम के अधिकार के अन्तर्गत माना जाता था । 

● लेकिन व्यवहारिक रुप से जिस प्रकार निजाम दिल्ली की सरकार से स्वतंत्र हो गया था । उसी प्रकार कर्नाटक का नायब सूबेदार जिसे कर्नाटक का नवाब कहा जाता था, ने अपने को दक्कन के नवाब के नियंत्रण से मुक्त कर लिया था तथा अपने पद को वंशानुगत बना लिया था ।

● इसलिए यहां के नवाब सआदतउल्ला खां ने अपने भतीजे दोस्तअली को नवाब की स्वीकृति के बिना ही अपना उत्तराधिकरी बना दिया था । 

● 1740 ई. के बाद कर्नाटक में सत्ता पर अधिकार के लिए अनेक संघर्ष हुए, जिससे वहां की स्थिति खराब हुई । 

● इसके फलस्वरुप यूरोपीय व्यापारिक कंपनियों को भारतीय राजनीति में प्रत्यक्ष रुप से हस्तक्षेप करने का मौका मिल गया ।

 


बंगाल 

● बंगाल भी केन्द्रीय मुगल साम्राज्य का एक सूबा था और वहां के सूबेदार की नियुक्ति मुगल बादशाह द्वारा की जाती थी । 

● केन्द्रीय सत्ता की बढ़ती हुई कमजोरी को देखकर बंगाल के सूबेदार ने भी बंगाल को स्वतंत्र बना लिया । 

● औरंगजेब के शासनकाल के समय से ही मुर्शीदकुली खां बंगाल के नायब सूबेदार के पद पर था । 

● 1717 ई. में मुगल बादशाह फर्रुखसियर ने उसको बंगाल का सूबेदार बना दिया । 

● इससे उसके अधिकारों तथा राजनीतिक स्थिति में वृद्धि हुई ।

● दिल्ली दरबार में होने बाली गुटबन्दी, मुगल सम्राट की दुर्बलता, राजनीतिक षड्यंत्र और घटती हुई केन्द्रीय प्रशासनिक शक्ति को देखकर उसने स्वयं को केन्द्रीय नियंत्रण से मुक्त कर लिया। लेकिन बादशाह के प्रति निष्ठा प्रकट करते हुए वह नियमित रुप से बादशाह को नजराने के रुप में काफी रकम भेजता था।

● उसने आंतरिक और बाह्य संकट से बंगाल को मुक्त कर वहां शांति स्थापित की । उसके काल में बंगाल जमींदारों के विद्रोहों से भी लगभग मुक्त हो गया।

● अपने सूबों के आन्तरिक मामलों में वह पूरी तरह स्वतंत्र था । राजस्व, न्याय, व्यापार एवं सुरक्षा की स्थापना आदि सभी महत्वपूर्ण कार्य वह स्वयं देखता था।

● उसकी एक मुख्य सफलता अपने राज्य को आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न बनाने रही । 

● उसने प्रशासन में मितव्ययिता अपनाई तथा बंगाल के वित्तीय मामलों का प्रबन्ध नए सिरे से किया । 

● उसने नए भू-राजस्व प्रबन्ध के द्वारा जागीर भूमि के एक बड़े भाग को खालसा भूमि बना दिया और लगान वसूल करने के लिए भूमि ठेकेदारों को दी।

● उसने व्यापार और उद्योग को भी प्रोत्साहन दिया जिससे राज्य की सम्पन्नता में वृद्धि हुई । 

● 1727 ई. में मुर्शीदकुली खां की मृत्यु के बाद उसका दामाद शुजाउद्दीन बंगाल का नवाब बना।

● 1733 ई. में मुगल बादशाह मुहम्मदशाह ने बिहार का प्रशासनिक कार्य भी बंगाल के नवाब को सौंप दिया । 

● इस प्रकार मुगल बादशाहों व दरबार की निर्बलता व प्रशासनिक अकुशलता का स्वाभाविक परिणाम बंगाल, बिहार व उड़ीसा को मिलाकर निर्मित बंगाल की सूबेदारी का स्वतंत्र राज्य के रुप में उदय होना था । 

● 1739 ई. में शुजाउद्दीन की मृत्यु के बाद उसका पुत्र सरफराज खां उसका उत्तराधिकारी बना | 

● किन्तु उसी वर्ष बंगाल के नायब सूबेदार अलीवर्दी खां ने विद्रोह कर सरफराज को घेरिया नामक स्थान पर हराकर मार दिया और स्वयं बंगाल का सूबेदार बन गया । 

● अलीवर्दी खां ने भी केन्द्रीय सत्ता की अधीनता मानते हुए स्वयं को प्रतीकात्मक रुप से शासक माना । 

● उसने मुगल बादशाह को 2 करोड़ रुपये का नज़राना भेजकर अपने उत्तराधिकार को मुगल दरबार से अनुमोदित करवा लिया।

● अलीवर्दी खां के शासनकाल में बंगाल एक पूर्ण स्वायत्तशासी राज्य बन गया था । 

● अलीवर्दी खां एक योग्य शासक था। 

● उसने बंगाल को एक शक्तिशाली राज्य बनाने का प्रयत्न किया, किन्तु उसके कार्य में बाधाएं आई ।

● प्रथम, बिहार में अफगानों ने विद्रोह किया । 1748 में वह उनकी शक्ति को नष्ट करने में सफल हो गया । 

● उसके सामने दूसरी कठिनाई मराठों के आक्रमण से उत्पन्न हुई । अलीवर्दी खां को 12 लाख रुपये प्रति वर्ष मराठों को देने के लिए बाध्य होना पड़ा | मराठों ने यह वचन दिया कि जब तक उन्हें यह धनराशि मिलती रहेगी तब तक वे बंगाल की सीमाओं में प्रवेश नहीं करेंगे । 10 अप्रेल 1756 ई. को उसकी मृत्यु हो गई ।

● बंगाल के इन तीनों नवाबों ने राज्य को शान्ति और सुव्यवस्थित प्रशासन दिया । 

● उनका मानना था कि व्यापार का प्रसार जनता और सरकार के लिए लाभदायक है इसलिए उन्होंने देशी और विदेशी व्यापारियों को प्रोत्साहित किया।

● लेकिन उन्होंने इस बात का भी ध्यान रखा कि विदेशी व्यापारिक कम्पनियां अपने विशेषाधिकारों का दुरुपयोग नहीं करने पायें।

● उन्होंने ईस्ट इण्डिया कम्पनी के कर्मचारियों को देश के कानूनों का पालन करने तथा अन्य व्यापारियों के बराबर सीमा शुल्क देने के लिए बाध्य किया।

● अलीवर्दी खां ने अंग्रेजों और फ्रांसीसियों को कलकत्ता और चंद्रनगर के अपने कारखानों की किलेबंदी करने की अनुमति नहीं दी । 

● लेकिन इन सब सावधानियों के बाद भी वे उपनिवेशवादी शक्तियों से होने वाले भावी खतरों को नहीं समझ पाए । 

● बंगाल के नवाबों ने राज्य की सुरक्षा हेतु शक्तिशाली फौज बनाने की ओर ध्यान नहीं दिया।

● उनके उत्तराधिकारियों को कालान्तर में इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी । 

● अलीवर्दी खां की मृत्यु के पश्चात् उसका नाती सिराजुद्दौला बंगाल का नवाब बना।

● उसने अपने विरोधियों को नष्ट किया और बंगाल के शासन को मजबूत बनाया। 

● लेकिन उसके शत्रुओं की संख्या बढ़ती गई।

● उसका संघर्ष अंग्रेजों से भी हुआ।

● अंग्रेज बंगाल में बिना कर देते हुए व्यापार करते थे, उसके शत्रुओं को शरण देते थे और उसकी आज्ञा के विरुद्ध कलकत्ता की अपनी फैक्ट्री की किलेबन्दी कर रहे थे । 

● सिराजुद्दौला ने उनके कार्यों में बाधा डाली।

● अंग्रेजों ने उसके शत्रुओं से मिलकर उसके खिलाफ षड्यंत्र किया । 

● इस संघर्ष का अन्तिम परिणाम जून 1757 ई. में प्लासी के युद्ध के रुप में सामने आया । 

● इस युद्ध में सिराजुद्दौला की पराजय हुई ।

● शक्तिशाली फौज के अभाव ने भी विदेशी कम्पनी की जीत में बहुत योगदान दिया ।

● अंग्रेजों ने मीरजाफर को बंगाल का नवाब बनाया ।

● 1760 ई. में अंग्रेजों ने मीरज़ाफर को गद्दी से हटाकर मीरकासिम को गद्दी पर बिठाया।

● मीरकासिम एक महत्वकांक्षी शासक था ।

● वह अंग्रेजों के प्रभाव से मुक्त होना चाहता था।

● अत: उसके अंग्रेजों के साथ सम्बन्ध तनावपूर्ण हो गए ।

● 1764 ई. में मीरकासिम और अवध के नवाब शुजाउद्दौला के साथ अंग्रेजों का बक्सर में युद्ध हुआ। 

● इस युद्ध में अंग्रेज विजयी रहे ।

● बंगाल का शासन उस समय से ईस्ट इण्डिया कम्पनी के हाथों में चला गया

● 1772 ई. में उसने प्रत्यक्ष रुप से बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा का शासन अपने अधिकार में ले लिया।


अवध

● अवध के स्वतंत्र राज्य का संस्थापक सआदत खां बुरहान-उल-मुल्क था।

● सआदत खां ईरान का निवासी शिया मुसलमान था । 

● सआदत खां 1708 ई. में भारत आया तथा मुगल दरबार में नौकरी करने लगा । 

● उसने सैयय्द् बंधुओं के प्रभाव से मुगल दरबार को मुक्त करने में बादशाह मुहम्मदशाह की सहायता की।

● सआदत खां की सेवाओं से खुश होकर बादशाह ने उसे पांच हज़ार जात व तीन हज़ार सवार की मनसबदारी तथा सआदत खां बुरहान-उल-मुल्क की उपाधि प्रदान की।

● 1722 ई. में उसे अवध का सूबेदार बनाया गया।

● आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से अवध का सूबा बहुत महत्वपूर्ण था।

● सआदत खां को वहां का सूबेदार बनाये जाने से अवध के पृथक राज्य की स्थापना का मार्ग प्रशस्त हुआ । 

● वह अत्यंत निडर कर्मठ, दृढ़ प्रतिज्ञ और कुशाग्न बुद्धि था।

● उसकी नियुक्ति के समय कई उपद्रवी जमींदारों ने प्रांत में हर जगह उपद्रव किए । उन्होंने लगान देने से इंकार किया, अपनी निजी सेनाएं गठित कर किले बनाए और शाही सेना की अवहेलना की।

● सआदत खां ने कई सालों तक उनसे संघर्ष किया।

● उसने अपने राज्य में अव्यवस्था को समाप्त किया और बड़े जमींदारों को अनुशासित किया, उसने 1723 ई. में नया राजस्व बंदोबस्त किया। जिससे किसानों की दशा ठीक हुई।

● 1724 ई. के पश्चात् उसने स्वतन्त्र शासक की तरह व्यवहार करना शुरु कर दिया । 

● उसने मुगल सत्ता को अस्वीकार तो नहीं किया किन्तु अवध पर मुगल दरबार के नियंत्रण को कमजोर कर दिया । 

● 1728 ई. में उसने बनारस, गाजीपुर, जौनपुर तथा चुनार के जिले वहां के नवाब मुर्तजाखान से छीन लिए । 

● अब उसका प्रभाव क्षेत्र कन्नौज तक बढ़ गया।

● 1729-35 ई. तक वह मराठों के आक्रमणों को रोकने में लगा रहा।

● 1735 ई. के अन्त में उसे कोरा जहानाबाद का फौज़दार भी नियुक्त कर दिया गया । 

● 1738 ई. में जब नादिरशाह ने भारत पर आक्रमण किया तो बादशाह की आज्ञा से वह अपने सैनिकों सहित दिल्ली गया । 

● परन्तु उसकी सहायता से कोई लाभ नहीं हुआ।

● 1739 ई. मे उसकी मृत्यु हो गयी ।

● अपनी मृत्यु से पहले वह वस्तुत: स्वतंत्र बन गया था और उसने अवध प्रांत को अपनी वंशगत जायदाद बना लिया था । 

● सआदत खां का उत्तराधिकारी उसका भतीजा सफदरजंग था । 

● वह एक योग्य शासक था जिसने अवध को शान्ति और सम्पन्नता प्रदान की । 

● उसकी योग्यता से प्रभावित होकर मुगल बादशाह अहमदशाह ने 1748 ई. में उसे अपने साम्राज्य का वज़ीर बना दिया । 

● इसके अलावा उसे इलाहाबाद का प्रांत भी दिया गया । 

● अपने शासनकाल में उसने अवध और इलाहाबाद की जनता को किसी प्रकार की अशांति का सामना नहीं करने दिया।

● उसने उपद्रवी ज़मींदारों का दमन किया और दूसरों को अपने पक्ष में कर लिया।

● उसने मराठा सरदारों से मित्रता कर ली ताकि उसके अधिकार क्षेत्र में उनकी घुसपैठ न हो सके।

● राजपूत सरदारों और कुलीनों की स्वामिभक्ति हासिल करने में भी वह कामयाब रहा।

● उसने रुहेलों और बंगश पठानों के खिलाफ युद्ध किए।

● बंगश नवाबों के खिलाफ 1750-51 ई. की लड़ाई में उसने मराठों की सैनिक सहायता तथा जाटौं का समर्थन प्राप्त किया । 

● इसके लिए उसे मराठों को प्रतिदिन 25,000 रुपये और जाटों को 15,000 रुपये प्रतिदिन देने पड़े । 

● सफदरजंग ने न्याय की भी अच्छी व्यवस्था की।

● उसने नौकरियां देने में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच निष्पक्षता की नीति अपनाई।

● उसकी सरकार के सबसे उच्च पद पर एक हिन्दू महाराजा नवाब राय नियुक्त था।

● इस प्रकार उसने उच्चकोटि की व्यक्तिगत नैतिकता का उदाहरण प्रस्तुत किया।

● 1754 ई. में उसकी मृत्यु के बाद शुजाउद्दौला उसका उत्तराधिकारी बना।

● उसके शासनकाल में अवध की राजनीति में गम्भीर परिवर्तन हुए।

● उसने मुगल शहज़ादा अली गौहर को अपने राज्य में शरण दी तथा पानीपत के तृतीय युद्ध में मराठों के विरुद्ध अहमदशाह अब्दाली का साथ दिया।

● अली गौहर जब शाह आलम के नाम से बादशाह बना तब 1782 ई. में उसे मुगल साम्राज्य का वज़ीर पद दिया गया ।

● उसने बंगाल के नवाब मीरकासिम को भी अपने राज्य में शरण दी थी और अंग्रेजों के विरुद्ध बक्सर का युद्ध लड़ा था, जिसमें उसकी भारी पराजय हुई।

● उसने 1765 ई. में अंग्रेजों से इलाहाबाद की सन्धि की जो अवध के राजकीय हितों के विरुद्ध थी। 

● अंग्रेजों ने उससे 50 लाख रुपये लिया तथा इलाहाबाद और कड़ा जिले मुगल बादशाह शाह आलम को दिला दिए।


फर्रुखाबाद और रुहेलखण्ड

● मुगल साम्राज्य के पतनकाल में उत्तरप्रदेश में अवध के अलावा अनेक छोटे-छोटे राज्यों का उदय हुआ।

● फर्रुखाबाद और रुहेलखण्ड के दोनों राज्यों की स्थापना मुगल सम्राट औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुगल साम्राज्य के विघटन के परिणाम स्वरुप पठान सरदारों के द्वारा की गई थी।

● अफगान मुहम्मद खां बंगश को 1713 ई. में फौजदारी के रुप में मुगल बादशाह फर्रुखसियर ने फर्रुखाबाद का क्षेत्र प्रदान किया था।

● कालान्तर में उसने व उसके उत्तराधिकारियों ने अपनी स्वायत्ता में वृद्धि कर ली तथा फौजदारी के रुप में मिले क्षेत्र को स्वतंत्र राज्य के रुप में विकसित कर लिया।

● नादिरशाह के आक्रमण के समय प्रशासनिक अव्यवस्था का लाभ उठाकर अली मुहम्मद खां रुहेला ने रुहेलखण्ड नामक राज्य स्थापित किया।

● यह राज्य हिमालय की तराई में दक्षिण में गंगा और उत्तर में कुमायूं की पहाड़ियों तक फैला हुआ था । 

● इस राज्य के अन्तर्गत बरेली, शाहजहांपुर, मुरादाबाद, बिजनौर इत्यादि कस्बे सम्मिलित थे।

● इसकी राजधानी पहले बरेली में आंवला में थी और बाद में रामपुर चली गई।

● अली मोहम्मद खां ने नादिरशाह के आक्रमण के पश्चात् मुगल दरबार को राजस्व व नजराना देना बन्द कर दिया था।

● 1745 ई. में उसने मुगल केन्द्रीय सेना की कार्यवाही के बाद मुगल सत्ता की प्रभुता को स्वीकार तो कर लिया लेकिन 1747 ई. में अहमदशाह अब्दाली के प्रथम भारत आक्रमण के समय स्वयं को पुन: मुगल सत्ता से स्वतंत्र कर लिया था।

● इस प्रकार रुहेलों का अवध, दिल्ली और जाटों से लगातार संघर्ष होता रहा ।

● 1748 ई. में मुहम्मदशाह की मृत्यु के बाद पठान सरदार हाफ़िज़ रहमत खां रुहेलखण्ड का उत्तराधिकारी बना।

● 1761 ई. में पानीपत के तृतीय युद्ध में अहमदशाह अब्दाली को रुहेलों ने पूरा सहयोग दिया।

● जिसके फलस्वरुप रुहेलों का अधिकार इटावा व शिकोहाबाद पर भी हो गया तथा दोआब का बहुत बड़ा भू-भाग रुहेलों व बंगशों के अधिकार में आ गया था।

● दिल्ली के आस-पास इन अफगान पठानों के स्वतंत्र राज्य स्थपित होने से मुगल साम्राज्य बहुत सिकुड़ गया था। 

● 1.5 मुगल साम्राज्य के प्रतिरोध में स्थापित नये राज्य मुगलों की राजस्व नीति के विरोध में मराठों, सिक्खों एवं जाटों ने विद्रोह किये थे।


अठारहवीं सदी के मध्य में केन्द्रीय नेतृत्व की दुर्बलता का लाभ उठाकर इन प्रतिरोधी जातियों के नेताओं ने स्वतंत्र राज्य स्थापित करने में सफलता प्राप्त कर ली - 

 


ये राज्य निम्नलिखित हैं :-


जाट राज्य

● उत्तरी भारत में जाट एक कुशल खेतिहर जाति है।

● जाट दिल्ली, आगरा और मथुरा के आस-पास के क्षेत्र में रहते थे।

● मथुरा के आस-पास के जाट किसानों ने औरंगज़ेब की दमनकारी राजस्व नीतियों के खिलाफ 1669 ई. और फिर 1688 ई. में जाट जमींदारों के नेतृत्व में विद्रोह किए।

● जाट-विद्रोहों को कुचल दिया गया लेकिन क्षेत्र में शांति स्थापित नहीं हुई।

● औरंगजेब की मृत्यु के बाद उन्होंने दिल्ली के चारों ओर अशांति का वातावरण उत्पन्न कर दिया।

● जमींदारों के नेतृत्व में जाट-विद्रोह मूलत:

किसान विद्रोह था।

● लेकिन शीघ्र ही वह लूटमार तक सीमित हो गया।

● उन्होंने अमीर- गरीब, जागीरदार-किसान, हिन्दू-मुसलमान सभी को लूटा।

● उन्होंने दिल्ली के दरबारी षड्यंत्रों में भी भाग लिया।

● अपने लाभ के अनुसार वे पक्ष बदल लेते थे।

● भरतपुर जाटों की सत्ता का प्रमुख केन्द्र था।

● औरंगजेब की मृत्यु के बाद होने वाले उत्तराधिकार के संघर्ष में जाट नेता चूड़ामन ने अन्तत: जीतने वाले पक्ष का साथ दिया, जिसके फलस्वरुप उसे मनसबदार बना दिया गया।

● उसने अपनी स्थिति को बहुत मजबूत कर लिया था।

● वस्तुतः चूड़ामन जाट राजनीतिक सत्ता का संस्थापक था।

● उसने थून नामक स्थान पर एक सुदृढ़ किला बनवाकर मुगलों की सत्ता को चुनौती दी।

● 1721 ई. में जयपुर के महाराजा सवाई जयसिंह के नेतृत्व में मुगल सेना ने चूड़ामन की राजनीतिक शक्ति को नष्ट कर दिया।

● 1722 ई. में थून का किला भी बर्बाद कर दिया गया।

● उसकी मृत्यु के बाद उसके भतीजे बदनसिंह ने जाटों का नेतृत्व किया।

● उसने डीग, कुम्हेर, वैर एवं भरतपुर में चार नये दुर्गो का निर्माण करवाया।

● नादिरशाह के आक्रमण से उत्पन्न राजनीतिक व्यवस्था का लाभ उठाते हुए जाटों ने मथुरा पर भी अधिकार कर लिया और इस प्रकार भरतपुर राज्य की स्थापना हुई। 

● 1756 ई. में सूरजमल भरतपुर का शासक बना, तथा उसके नेतृत्व में जाट सत्ता उच्चतम शिखर पर पहुंच गई।

● तब उसे जाटों का अफलातून (प्लेटो) कहा जाने लगा।

● वह एक योग्य प्रशासक, सैनिक और बुद्धिमान राजनीतिज्ञ था।

● उसने एक विशाल क्षेत्र पर अधिकार किया जो पूर्व में गंगा से लेकर दक्षिण में चंबल तक तथा पश्चिम में आगरा के सूबे से लेकर उत्तर में दिल्ली के सूबे तक फैला हुआ था।

● उसके राज्य में आगरा, मथुरा. मेरठ, अलीगढ़ व अन्य जिले शामिल थे।

● मुगल राजस्व व्यवस्था को अपनाकर उसने एक स्थाई राज्य की नींव रखने का प्रयास किया।

● उसके नेतृत्व में जाट शक्ति इतनी बढ़ गई थी कि मुगल दरबार सहित उत्तरी भारत की राजनीतिक शक्तियां अपनी सफलता के लिए उसकी सहायता मांगने तथा आवश्यकता होने पर उसकी शरण में जाने को तैयार थी।

● 1762 ई. में उसकी मृत्यु हो गई । 

● उसके बाद जाट राज्य पतन की ओर अग्रसर होने लगा । 

● यद्यपि उसका उत्तराधिकरी जवाहरसिंह भी साहसी था किन्तु बदलती राजनीतिक परिस्थितियों में भरतपुर के विशाल राज्य को सुरक्षित नहीं रख पाया । 

● उसे मराठों, राजपूतों व रुहेलों से लगातार संघर्ष करना पड़ा । 

● कालान्तर में जाट राज्य छोटे जमींदारों के बीच विभाजित हो गया, जिनमें से ज्यादातर ने लूटमार को पेशा बना लिया था ।


पंजाब में सिक्ख शक्ति का उत्थान


● सिक्ख धर्म पन्द्रहवीं शताब्दी में भक्ति आन्दोलन के सन्त गुरु नानक द्वारा चलाया गया था।

● यह एक सरल, लोकतांत्रिक पद्धति पर आधारित, आडम्बर और अंधविश्वास रहित धर्म था जो, जल्द ही पंजाब के जाट किसानों तथा अन्य निम्न जातियों के बीच फैल गया । 

● गुरु हर गोविन्द (1606-1945) ने सिक्खों को एक लड़ाकू समुदाय के रुप में बदलने का काम शुरु किया । 

● सिक्खों के दसवें और अंतिम गुरु गोबिन्द सिंह (1606-1708) के नेतृत्व में सिक्ख एक राजनीतिक और सैनिक ताकत बने । 

● उन्होंने खालसा सेना की स्थापना की।

● गुरु गोविन्दसिंह ने उनमें बहादुरी और स्वतंत्रता की भावना का विकास किया था । 

● औरंगज़ेब की सेनाओं और पहाड़ी राजाओं के विरुद्ध गुरु गोविन्दसिंह ने 1699 ई. से लेकर लगातार संघर्ष किए । 

● औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद हुए उत्तराधिकार युद्ध में गुरु गोविन्द सिंह ने बहादुरशाह का साथ दिया।

● बहादुरशाह ने उन्हें 5,000 जात और 5,000 सवार का मनसब दिया था । 

● वे बहादुरशाह के साथ दक्षिण गये जहां एक अफगान नौकर ने विश्वासघात कर उन्हें मार दिया।

● गुरु गोविन्दसिंह ने अपनी मृत्यु से पहले गुरु की प्रथा को समाप्त कर दिया और कहा, कि जहां भी पांच सिक्ख एकत्र होंगे वहां मैं उपस्थित रहूंगा।

● इस प्रकार सिक्खों के हितों के बारे में सोचने का निर्णय सिक्ख पंचायत को सौंप दिया गया । 

● 1708 ई. मे सिक्खों का नेतृत्व उन के विश्वासपात्र शिष्य बन्दा बहादुर के हाथों में आ गया।

● बन्दा बहादुर ने पंजाब के किसानों और निम्न जातियों के लोगों को एकजुट किया और मुगल सेना के विरुद्ध 8 साल तक असमानता का युद्ध किया।

● 1715 ई. में सहयोगियों के विश्वासघात के कारण वह मुगल सेना द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया और उसकी हत्या कर दी गई । 

बन्दा बहादुर की असफलता के निम्न कारण थे :-

1. मुगल शासन अभी भी काफी शक्तिशाली था ।

2. पंजाब के सम्पन्न वर्ग और ऊँची जातियों के लोगों ने उसके विरोधियों का साथ दिया क्योंकि वह निम्न जातियों और गांवों की जनता का पक्षधर था ।

3. अपनी धार्मिक कट्टरता के कारण वह मुगल विरोधी सभी शक्तियों को संगठित नहीं कर सका ।


● 1716 ई. में सिक्खों का विद्रोह लगभग कुचल दिया गया । 

● बन्दा बहादुर के दमन के बाद सिक्ख नेतृत्वहीन हो गये । 

● वे लगभग 20 वर्ष तक शान्त रहे।

● बन्दा बहादुर ने सिक्ख-सरदारों को अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित करने का विचार दिया था।

● उससे प्रेरित होकर विभिन्न सिक्ख सरदारों ने अपनी सेनाएं एकत्र करके अपने-अपने प्रभाव-क्षेत्र को बढ़ाने का प्रयत्न किया । 

● ऐसी स्थिति में उनका मुगलों से संघर्ष होना स्वाभाविक था । 

● नादिरशाह और अहमदशाह अब्दाली के आक्रमणों और उसके कारण पंजाब के प्रशासन में उत्पन्न अव्यवस्था ने सिक्खों को पुन: उभरने का अवसर दिया । 

● आक्रमणकारियों की सेनाओं के आगे बढ़ने पर सिक्खों ने बिना किसी भेदभाव के सबको लूटा और धन तथा सैनिक शक्ति जमा की।

● बाह्य आक्रमणों ने मुगल सत्ता को और अधिक कमजोर कर दिया । 

● जबकि सिक्खों को इससे अप्रत्यक्ष लाभ मिला।

● 1761 ई. में पानीपत के तीसरे युद्ध में अहमदशाह अब्दाली ने मराठों को बुरी तरह से पराजित किया' जिसके कारण पंजाब की राजनीति में मुगलों और मराठों का प्रभाव कम हो गया।

● अब्दाली के पंजाब से वापस जाने के बाद सिखों ने राजनीतिक खालीपन को भरना शुरु किया । 

● 17 अक्टूबर, 1762 ई. को दीपावली के अवसर पर अमृतसर में 60,000 की सिख संगत एकत्र हुई तथा उन्होंने अब्दाली के अफगान सैनिकों पर आक्रमण कर दिया तथा उन्हें लाहौर से आगे खदेड़ दिया । 

● अब्दाली की मृत्यु के बाद पंजाब पर अफगान शासक का नियंत्रण भी कमजोर हो गया तथा सिखों ने विभिन्न स्थानों पर अपने छोटे-छोटे राज्य बना लिये जिन्हें 'मिसल 'कहा जाता था।

● सिख 12 मिसलों में संगठित थे जो सूबे के विभिन्न भागों में काम करते थे । 

● ये मिसल परस्पर पूरा सहयोग करते थे । 

● मूलत: वे समानता के सिद्धान्त पर आधारित थे।

● धीरे-धीरे मिसलों का लोकतांत्रिक और अकुलीन चरित्र गायब हो गया और शक्तिशाली सरदारों, सामंतों और जमींदारों ने उस पर अपना प्रभाव स्थापित कर लिया । 

● इन्हीं मिसलों में से एक सुकरचकिया मिसल का मालिक रणजीत सिंह का पिता महासिंह था।

● अठारहवीं सदी के अंत में रणजीत सिंह ने इन मिसलों को संगठित कर पंजाब में एक शक्तिशाली राज्य की स्थापना की ।


मराठा शक्ति का उत्थान और पतन

● मुगल साम्राज्य के पतनकाल में मुगलों को सबसे महत्तवपूर्ण चुनौती मराठों से मिली ।

● मराठा राज्य, नवोदित शक्तियों में सबसे शक्तिशाली थे।

● स्वतंत्र मराठा राज्य की स्थापना छत्रपति शिवाजी ने औरंगजेब के शासनकाल में की थीं।

● वस्तुत: मुगल साम्राज्य के विघटन से उत्पन्न राजनीतिक रिक्तता को भरने की क्षमता केवल मराठों में ही थी । 

● इस कार्य के लिए आवश्यक प्रतिभाशाली सेनापति और राजनीतिज्ञ भी उनके पास थे।

● लेकिन मराठा सरदारों में एकता का अभाव था।

● साथ ही उनके पास एक अखिल भारतीय साम्राज्य बनाने की योजना तथा कार्यक्रम भी नहीं था । 

● अतएव वे मुगलों की जगह लेने में सफल नहीं हुए ।

● किन्तु मुगल साम्राज्य के नष्ट होने तक उनका मुगलों से संघर्ष चलता रहा।

● 1881 ई. में शिवाजी की मृत्यु के बाद उनका बड़ा पुत्र शम्भाजी शासक बना।

● उसने भी मुगल विरोधी नीति का पालन किया।

● 1689 ई. में औरंगज़ेब ने शम्भाजी को समाप्त करने तथा महाराष्ट्र पर अधिकार करने में सफलता पाई।

● मराठों ने शम्भाजी की मृत्यु के बाद महाराष्ट्र को स्वतंत्र कराने के लिए जो संघर्ष शुरु किया वह औरंगजेब की मृत्यु तक चलता रहा।

● शिवाजी के दूसरे पुत्र राजाराम की पत्नी ताराबाई ने 1700 ई. में अपने पति की मृत्यु के बाद मराठों  का नेतृत्व किया । 

● औरंगज़ेब अपने अंत समय तक मराठों के दमन में सफल नहीं हो सका।

● औरंगजेब के पुत्रों में होने वाला उत्तराधिकर युद्ध मराठों के लिए हितकारी सिद्ध हुआ । 

● औरंगजेब के दूसरे पुत्र आज़मशाह ने शम्भाजी के पुत्र को 8 मई, 1707 ई. को कैद से मुक्त कर दिया।

● उसे मराठों के राजा की मान्यता प्रदान करते हुए मराठा स्वराज्य के साथ मुगलों के दक्षिणी सूबे की चौथ और सरदेशमुखी वसूलने का अधिकार दिया गया । 

● अधिकांश मराठा सरदारों ने भी उसे मराठा-छत्रपति मान लिया । 

● 1714 ई. में बाद मराठा इतिहास में एक नये युग का सूत्रपात हुआ।

● इस काल को पेशवा काल के नाम से जाना जा सकता है । 

● पेशवाओं ने मराठा राज्य को एक साम्राज्य के रुप में बदल दिया । 

● पेशवा का पद छत्रपति शिवाजी की अष्टप्रधान परिषद् में प्रधानमंत्री के समान था । 

● शिवाजी की मृत्यु के बाद अष्टप्रधान सभा का

महत्व कम हो गया था।

● शाहू को अपने शासनकाल के आरम्भ में बालाजी विश्वनाथ नामक अधिकारी ने शत्रुओं को कुचलने में बहुत सहायता की थी । 

● शाहू ने 1713 ई. में बालाजी विश्वनाथ को पेशवा नियुक्त किया । 

● बालाजी विश्वनाथ ने धीरे-धीरे मराठा अधिकार स्थापित कर लिया । 

● उसने मराठा शक्ति को बढ़ाने के लिए मुगल अधिकारियों के आपसी झगड़ों का पूरा लाभ उठाया।

● उसने दक्कन के छ: सूबों की चौथ और सरदेशमुखी वसूलने का अधिकार भी मुगल दरबार से प्राप्त कर लिया । 

● साथ ही वे इलाके भी शाहू को वापस मिल गए, जो पहले शिवाजी के राज्य का भाग थे।

● बालाजी विश्वनाथ 1719 ई. में एक मराठा सेना लेकर सैय्यद हुसैन अली खां के साथ दिल्ली गया और मुगल बादशाह फर्रुखसियर का तख्ता पलटने में सैय्यद बंधुओं की सहायता की । 

● इस दिल्ली अभियान ने उसकी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा को बढ़ा दिया था।

● उसमें मराठों का अपना प्रभाव-क्षेत्र उदर की ओर बढ़ाने की महत्वाकांक्षा जाग उठी।

● बालाजी विश्वनाथ का यह भी विचार था कि राजपूताना पर भी मराठा आधिपत्य स्थापित किया जा सकता है।

● 1720 ई. में बालाजी विश्वनाथ की मृत्यु हो गई और उसका पुत्र बाजीराव प्रथम पेशवा बना । 

● युवा होने के बावजूद बाजीराव एक निर्भीक सेनापति, महत्वाकांक्षी और चतुर राजनेता था । 

● उसे शिवाजी के बाद गुरिल्ला युद्ध का सबसे बड़ा प्रतिपादक कहा जाता है।

● बाजीराव के नेतृत्व में मराठों ने मुगलों के खिलाफ अनेक अभियान किए उसने मालवा और गुजरात पर आक्रमण किया और मुगल सूबेदारों को पराजित कर वहां चौथ वसूल करना शुरु कर दिया।

● बुन्देलखण्ड तथा जाट शासकों से भी चौथ वसूल करके उसने अपनी शक्ति इतनी बढ़ा ली कि कोई भी मराठों को चुनौती नहीं दे सकता था।

● बाजीराव ने दक्षिण में निजाम-उल-मुल्क की शक्ति को नियंत्रित करने की भी कोशिश की 

● निजाम ने भी पेशवा की शक्ति को कमजोर करने के लिए कोल्हापुर के राजा, मराठा सरदारों और मुगल अधिकारियों से मिलकर लगातार षड्यंत्र किए लेकिन उसे सफलता नहीं मिली । 

● निजाम को पालखेद और भूपाल के युद्ध में हार का सामना करना पड़ा । 

● परिणामत: उसे दक्षिणी प्रांतों की चौथ और सरदेशमुखी मराठों को देने के लिए बाध्य होना पड़ा।

● 1733 ई. में बाजीराव ने जंजीरा के सिद्दियों के खिलाफ एक लम्बा और शक्तिशाली अभियान शुरु किया । 

● अंत में वह उन्हें मुख्य भूमि से निकालने में सफल रहा।

● उसने पुर्तगालियों के विरुद्ध भी एक अभियान आरम्भ किया । वहां भी उसे सफलता मिली और सिलसिट ब बसई (बस्सीन) पर उसने कब्जा कर लिया | 

● 1737 ई. में वह दिल्ली तक भी पहुंच गया।

● उसके दिल्ली अभियान का उद्देश्य मुगल सम्राट मुहम्मदशाह के सामने मराठों की शक्ति का प्रदर्शन करना था।

● इसके काल में पूना मराठा राजनीति का मुख्य केन्द्र बन गया था क्योंकि यहां पेशवा का कार्यालय था, जबकि छत्रपति सतारा में रहता था।

● उसी के काल में मराठा संघ की स्थापना हुई उसने सम्पूर्ण मराठा क्षेत्र को पांच भागों में विभक्त कर दिया था । 

● इनमें ग्वालियर सिन्धिया को, इन्दौर होल्कर को, नागपुर भौंसले को, गुजरात गायकवाड़ को तथा महाराष्ट्र का मराठा स्वराज्य छत्रपति व पेशवा के अधीन रखा गया था।

● इस मराठा संघ का मुखिया स्वयं पेशवा ही था।

● बाजीराव की मृत्यु अप्रैल 1740 ई. में हुई। 

● बीस वर्षों की अल्प अवधि में ही उसने मराठा राज्य को एक साम्राज्य के रुप में बदल दिया जिसका प्रसार उत्तर में भी हुआ था।

● उसके बाद उसका पुत्र बालाजी बाजीराव 18 वर्ष की आयु में पेशवा बना  वह 1740 से 1761ई. तक पेशवा-पद पर रहा । 

● वह भी अपने पिता की तरह योग्य था ।

● मराठा शासक शाहू की मृत्यु 1749 ई. में हुई। उसने एक वसीयत द्वारा सारा राजकार्य पेशवा को सौंप दिया था । 

● पेशवा का पद तब तक वंशानुगत हो गया था और पेशवा ही राज्य का असली शासक हो गया था।

● बालाजी बाजीराव ने अपने पिता द्वारा शुरु की गई साम्राज्य विस्तार की नीति को अपनाया । 

● उसने साम्राज्य को विभिन्न दिशाओं में बढ़ाया।

● बालाजी बाजीराव के योग्य नेतृत्व में मराठा प्रभाव महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, मालवा, बुन्देलखण्ड, बंगाल, कर्नाटक, अवध तथा पंजाब

तक बढ़ गया साथ ही में मुगल दरबार में भी मराठों का प्रभाव बहुत बढ़ गया।

● उसने राजपूतों के आन्तरिक झगड़ों में भी हस्तक्षेप किया।

● यह हस्तक्षेप राजपूतों को पसन्द नहीं आया और वे मराठों के शत्रु बन गये।

● 1752 ई. तक मराठे अपनी शक्ति की चरम सीमा पर पहुंच गये थे । 

● मराठा- घुड़सवार दक्षिण से उत्तर भारत तक फैल गये, मुगल बादशाह उनके हाथ की कठपुतली बन गये, भारत के अधिकांश भू-भाग पर उनका अधिकार हो गया और बचे हुए क्षेत्रों में उन्होंने 'चौथ और सरदेशमुखी वसूल करना शुरु कर दिया।

● लेकिन मराठे अपने बढ़ते हुए उत्तरदायित्व को संभालने में समर्थ नहीं हुए। उन्होंने राजपूतों और जाटों से अपने सम्बन्ध खराब कर लिये, दिल्ली की राजनीति में हस्तक्षेप करने के बाद वे उसे अपने

अधिकार में नहीं रख सके।

● मुगल सम्राट व मराठों के बीच 1752 ई. में एक संधि हुई। जिसके अन्तर्गत तय हुआ कि देशी एवं विदेशी शत्रुओं से चौथ वसूल करने का अधिकार मराठों का रहेगा । 

● इस संधि का नुकसान मराठों को हुआ क्योंकि अब सब देशी शक्तियां उनके खिलाफ हो गई।

● मुगल दरबार का विदेशी मुसलमान सरदारों का दल भी उनके खिलाफ हो गया तथा उस गुट ने अफगानिस्तान के शासक अहमदशाह अब्दाली से मराठों के विरुद्ध सहायता माँगी।

● उपरोक्त अनुकूल परिस्थितियों में अहमदशाह अब्दाली ने लाभ उठाया । 

● उसने मराठों को उत्तरी भारत से भगाने के लिए पांचवी बार भारत पर आक्रमण किया । 

● उसने रुहेलखण्ड के नजीबउद्दौला और अवध के शुज़ा-उद्-दौला से भी संधि कर ली । 

● वे दोनों मराठा सरदारों से हार चुके थे । 

● इस प्रकार उत्तरी भारत में मराठों के प्रदेश तथा विस्तारवादी नीति का परिणाम पानीपत के तृतीय युद्ध के रुप में सामने आया।

● विरोधी सेनाएं नवम्बर 1760 ई. से एक दूसरे के सामने पानीपत के मैदान में डटी हुई थीं । 

● जबकि पानीपत का तृतीय निर्णयात्मक युद्ध 14 जनवरी 1761 ई. को प्रात: अहमदशाह अब्दाली और मराठा सेनाओं के बीच हुआ।

● अफगान सेना 60 हजार के लगभग थी और मराठा सैनिकों की संख्या 45 हजार ही थी।

● दोपहर तक मराठा सेना विजयी होने की स्थिति में थी । 

● लेकिन बाद में मराठा फौज के पैर पूरी तरह उखड़ गए।

● मल्हारराव होल्कर युद्ध के बीच में ही भाग निकला।

● इब्राहीम गार्दी के तोपखाने ने अब्दाली की सेना को बहुत नुकसान पहुंचाया लेकिन अन्त में मराठों की पराजय हुई।

● पेशवा का बेटा विश्वासराव, सदाशिव राव भाऊ, जसवन्तराव पंवार, जनकोजी सिन्धिया, इब्राहीम गार्दी इत्यादि अनेक मराठा सेनापति और लगभग 28 हज़ार सैनिक मारे गये।

● अफ़गान घुड़सवारों ने भागने वाले मराठा सैनिकों का दूर तक पीछा किया । 

● उत्तरी भारत में मराठा-अफ़गान संघर्ष में मराठा सेना का नेतृत्व कर रहे पेशवा के चचेरे भाई सदाशिव राव की पराजय ने पेशवा बालाजी बाजीराव को आघात पहुंचाया। 

● वह पहले से ही गम्भीर रुप से बीमार था । 

● अत: 23 जून व 1761 ई. को उसकी मृत्यु हो गई।

 

पानीपत में मराठों की पराजय के अनेक कारण थे-

1. इसका मुख्य कारण सदाशिवराव की कूटनीतिक असफलता और अब्दाली की तुलना में उसका कमजोर सेनापतित्व था ।

2. मराठों की सेना में स्त्रियों और नौकरों की संख्या बहुत ज्यादा थी ।

3. सदाशिवराव ने अपने गलत सैन्य संचालन से दोआब का क्षेत्र खो दिया और वह अपनी सेना के लिए पर्याप्त रसद भी नहीं जुटा सका ।

4. तीन महीने तक मराठा सेना बेकार पड़ी रही ।

5. मराठों ने इस युद्ध में 'छापामार (गुरिल्ला) रण-नीति का प्रयोग नहीं किया अपितु इब्राहीम गार्दी के तोपखाने पर आश्रित होकर सुरक्षात्मक युद्ध किया ।

6. अब्दाली के पास अच्छी घुड़सवार और ऊँट-सेना थी और उसके पास अच्छी बंदूकें भी थीं, जबकि मराठा सेना में घुड़सवारों की कमी थी ।

7. मुस्लिम शासकों ने मराठों के बजाय अहमदशाह अब्दाली की सहायता की ।

8. सदाशिवराव राजपूतों, सिक्खों और जाटों से भी सहायता नहीं ले पाया।

9. पेशवाओं के नेतृत्व में मराठा राज्य की स्पष्ट आर्थिक और प्रशासनिक नीतियों का विकसित न होना भी उनकी पराजय का कारण बना।

10. इसी प्रकार जहां अब्दाली की सेना में एकता और अनुशासन उल्लेखनीय था वहीं मराठों में इसका पूर्णत: अभाव था।

● उपरोक्त सभी परिस्थितियों ने मराठों की पराजय को निश्चित बना दिया ।

● पानीपत का तीसरा युद्ध भारतीय इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है ।

● इसने मुगल-सत्ता को हमेशा के लिए गौण कर दिया और मराठों की सम्पूर्ण भारत में हिन्दू स्वराज्य स्थापित करने की कामना पर भी पानी फेर दिया।

● इस युद्ध के पश्चात यह तय हो गया कि मुगल साम्राज्य की विरासत को संभालने में कोई भी भारतीय शक्ति सक्षम नहीं है।

● पानीपत की पराजय से मराठों को बहुत नुकसान पहुंचा।

● उन्होंने अपने योग्यतम सेनापतियों और बहादुर सरदारों को खो दिया था, जिसके कारण रघुनाथ राव जैसे दुर्बल और षड्यंत्रकारी सरदारों को मराठा राजनीति में भाग लेने का अवसर मिला।

● मराठों की राजनीतिक प्रतिष्ठा को भी बड़ा धक्का लगा । 

● इस युद्ध में पेशवा की शक्ति कमजोर हो गयी और मराठा राज्य छिन्न-भिन्न होने लगा इस पराजय ने उत्तर भारत में मराठों की प्रगति को रोक दिया।

● उनकी पराजय ने बंगाल और दक्षिण भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी को अपना प्रभाव जमाने का अवसर दिया।

● मराठा सेना अब अजेय नहीं रही थी।

● पानीपत के तृतीय युद्ध के परिणामस्वरूप पंजाब में सिख शक्ति का तेजी से विकास हुआ।

● संक्षेप में इस युद्ध ने मराठा शक्ति को बहुत आघात पहुंचाया। 

● इसके बाद वे सम्पूर्ण भारत की सर्वश्रेष्ठ शक्ति होने का दावा नहीं कर सके, अपितु भारत की विभिन्न शक्तियों में से एक रह गये।

● वस्तुत: पानीपत के तृतीय युद्ध ने यह फैसला नहीं किया कि भारत पर कौन राज्य करेगा बल्कि यह तय कर दिया कि भारत पर कौन शासन नहीं करेगा।

● अब भारत में ब्रिटिश सत्ता के उदय का रास्ता साफ हो गया था

मुगलों के अधीन राज्यों में स्वतंत्रता की पुर्नस्थापना

● 18वीं सदी में क्षेत्रीय शक्ति के रुप में उदित होने वाले कुछ राज्य ऐसे थे जिनका अस्तित्व पहले से विद्यमान था तथा वे नाममात्र के लिए ही सही लेकिन मुगलों के अधीन थे ।

●  इनमें मैसूर, केरल और राजपूत राज्य सम्मिलित थे ।


मैसूर


● 18वीं सदी के मध्य में भारत के राजनीतिक क्षितिज पर स्वतंत्र राज्यों के उदय की खला में दक्षिण भारत का मैसूर राज्य एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है।

● मैसूर के स्वतंत्र राज्य की स्थापना हैदरअली ने की थी।

● विजयनगर साम्राज्य के अंत समय से ही मैसूर राज्य ने अपनी कमजोर स्वाधीनता को बनाए रखा और वह नाममात्र को ही मुगल साम्राज्य का अंग था।

● 1704 ई. में मैसूर के राजा ने औरंगजेब की आधीनता स्वीकार कर ली थी।

● औरंगजेब की मृत्यु के बाद इस क्षेत्र में मराठों को चौथ वसूली का अधिकार मिल गया । 

● 18वीं सदी के प्रारम्भ में नन्दराज और देवराज नाम के दो मंत्रियों ने मैसूर राज्य की सभी प्रशासनिक शक्तियां अपने हाथ मे ले रखी थी वहां का शासक कृष्णराज नाम मात्र का शासक रह गया था। 

● अठारहवीं सदी के मध्य में केन्द्रीय सत्ता के कमजोर होने से प्रान्तीय शासक अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित करने में लगे थे । 

● इस काल में यह प्रवृत्ति भी दिखाई देती है कि राज्य-शासन में विधिवत अधिकारियों का स्थान राजघरानों के बजाय साधारण वर्ग के योग्य व शक्तिशाली व्यक्ति लेने लगे थे।

● उदाहरण स्वरुप, मराठा शासक छत्रपति का स्थान पेशवा और मैसूर के राजाओं का स्थान हैदरअली और टीपू सुल्तान ने ग्रहण कर लिया था।

● हैदरअली का पिता फतह मुहम्मद एक छोटा जागीरदार तथा मैसूर राज्य की सेना में अधिकारी था । 

● 1738 ई. में हैदरअली एवं सिपाही के रुप में मैसूर की सेना में भर्ती हुआ था।

● वह कुशाग्र बुद्धि और प्रतिभा का धनी था।

● वह अत्यंत परिश्रमी और लगनशील था, तथा एक प्रतिभाशाली सेनानायक एवं चालाक राजनीतिज्ञ भी था।

● मैसूर राज्य 20 साल तक युद्ध में उलझा रहा।

● इस अवधि में हैदरअली ने हर अवसर का लाभ उठाया और सेना में ऊँचे पद पर पहुंच गया । 

● 1755 ई. में वह डिण्डीगुल का फौजदार नियुक्त किया गया । 

● वहाँ उसने एक आधुनिक शस्त्रागार स्थापित किया।

● जिसमें उसने फ्रांसीसी विशेषज्ञों की मदद ली।

● 1761 ई. में उसने नंदराज को सत्ता से अलग कर दिया तथा मैसूर राज्य पर अपना अधिकार कायम कर लिया । 

● योद्धा सरदारों और जमींदारों के विद्रोहों को उसने नियंत्रित कर लिया तथा बिदनुर, सुंडा, सैदा कन्नड और मालाबार के इलाकों को जीत लिया।

● हैदराबाद और कर्नाटक के उत्तराधिकार के युद्धों तथा पानीपत के तृतीय युद्ध में मराठों की पराजय

तथा दक्षिण में अंग्रेजों और फ्रांसीसियों की कट्टर शत्रुता ने हैदरअली को अपनी शक्ति और राज्य का विस्तार करने में सहयोग किया । 

● इस प्रकार एक साधारण स्थिति से उठकर वह मैसूर राज्य के प्रमुख के पर पहुंच गया । 

● वह एक अच्छा प्रशासक था । 

● अपने राज्य में उसी ने मुगल शासन प्रणाली तथा राजस्व व्यवस्था लागू की थी । 

● एक कमजोर और विभाजित राज्य को उसने शीघ्र ही भारत की प्रमुख शक्ति में बदल दिया।

● उसने धार्मिक सहिष्णुता की नीति को अपनाया।

● उसका पहला दीवान और अन्य अनेक अधिकारी हिन्दू थे । 

● हैदरअली की विस्तारवादी नीति के कारण उसे अपने शासन के प्रारम्भ से ही मराठा सरदारों, निजाम और अंग्रेजों के साथ संघर्ष करना पड़ा।

● उसने 1769 ई. में अंग्रेजी सेनाओं को बार-बार हराया और मद्रास तक पहुंच गया । 

● द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध के दौरान 1782 ई. में उसकी मृत्यु हो गई । उसके स्थान पर उसका पुत्र टीपू सुलातन गद्दी पर बैठा।

केरल

● अठारहवीं सदी के आरम्भ में केरल अनेक सामंत सरदारों और राजाओं में बंटा हुआ था। 

● इनमें राज्य प्रमुख थे कालीकट, चिरक्कल, कोचिन और त्रावणकोर । 

● 1729 ई. के बाद त्रावणकोर राज्य राजा मार्तण्ड बर्मा के नेतृत्व में एक प्रमुख राज्य के रुप में उभरा।

● उसमें विलक्षण, दूरदर्शिता तथा दृढ़ संकल्प और साहस तथा निर्भीकता का सामंजस्य था । 

● उसने सामंतों की शक्ति को दबा दिया | क्तिलोन और इलायादाम को उसने जीत लिया और डच लोगों को हराकर केरल में उनकी राजनीतिक सत्ता समाप्त कर दी । 

● उसने यूरोपीय अधिकारियों की सहायता से पश्चिमी सैनिक आदर्श (मॉडल) के आधार पर एक शक्तिशाली सेना का गठन किया तथा उसे आधुनिक हथियारों से सुसज्जित किया । 

● उसने एक आधुनिक शस्त्रगार भी बनाया।

● मार्तण्ड बर्मा ने अपनी सेना का उपयोग अपने राज्य का उत्तर में विस्तार के लिए किया।

● त्रावणकोर की सीमाएं शीघ्र ही कन्याकुमारी से कोचीन तक फैल गई।

● उसने सिंचाई की अनेक व्यवस्थाएं की, आवागमन के लिए सड़कों का निर्माण कराया तथा विदेश व्यापार को प्रोत्साहन दिया

● 18वीं सदी के उत्तरार्ध में त्रावणकोर की राजधानी त्रिवेंद्रम संस्कृत साहित्य का एक प्रसिद्ध केन्द्र बन गया।


राजपूत राज्य

● मुगल सम्राट औरंगजेब की मृत्यु के बाद राजपूत राज्यों में मुगल सत्ता का नियंत्रण कमजोर पड़ गया था । 

● प्रमुख राजपूत राज्यों ने मुगल सत्ता की बढ़ती हुई कमजोरी का लाभ उठाकर अपने को केन्द्रीय नियंत्रण से मुक्त कर लिया था । 

● इसके साथ ही उन्होंने मुगल साम्राज्य के शेष भागों में अपना प्रभाव बढ़ाया । 

● फर्रुखसियर और मुहम्मदशाह के शासनकाल में आमेर और मारवाड़ के शासकों को आगरा गुजरात और मालवा जैसे महत्वपूर्ण मुगल प्रांतो का सूबेदार बनाया गया था।

● राजपूत शासकों ने मुगलों के उत्तराधिकार के संघर्ष तथा सत्ता के षड्यंत्रों में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, किन्तु उदर मुगलकाल में मुगल दरबार में उनका महत्व पहले से कम हो गया था।

● राजपूत राज्य पूर्व की भांति अभी भी विभाजित रहे । 

● बड़े राज्यों ने अपने से छोटे राजपूत और गैर-राजपूत राज्यों के क्षेत्रों को हथिया कर अपना राज्य विस्तार किया । 

● इन राज्यों की आंतरिक राजनीति में भी मुगल दरबार के समान भ्रष्टाचार, षड्यंत्र और विश्वासघात का वातावरण था ।

● 18वीं सदी का सबसे श्रेष्ठ राजपूत शासक आमेर का सवाई जयसिंह (1681-1743 ई) था वह एक विख्यात राजनीतिज्ञ, कानून-निर्माता और समाज सुधारक था । 

● उसने 1727 ई. में जयपुर शहर की स्थापना की।

● 18वीं सदी के मध्य तक राजपूताना से मुगल नियंत्रण लगभग पूरी तरह समाज हो गया था । 

● अब मराठों के रुप में एक नई शक्ति का उदय हुआ था। 

● मराठे मालवा और गुजरात में अपना प्रभाव स्थापित कर चुके थे । 

● अब उनकी महत्वाकांक्षा राजपूताना के राज्यों पर वर्चस्व जमाने की थी । 

● 1734 ई. के बाद से मराठों के राजपूताना में अभियान शुरु हो चुके थे । मेवाड़, मारवाड़, जयपुर, कोटा व बूंदी आदि बड़े राज्य मराठा अभियानों के प्रमुख केन्द्र थे । 

● मराठों के आक्रमणों के सम्पादित खतरे को देखते हुए सवाई जयसिंह ने राजपूताना के शासकों को संगठित करने का प्रयास किया।

● मराठों के विरुद्ध एक संयुक्त मोर्चा बनाने के उद्देश्य से जुलाई, 1734 ई. में राजपूत-शासकों का सम्मेलन मेवाड़ के हुडा नामक स्थान पर हुआ । 

● इसकी अध्यक्षता मेवाड़ के शासक जगतसिंह द्वितीय ने की । 

● इस सम्मेलन में सभी राजाओं ने शपथ ली कि वे अच्छे और बुरे में एक रहेंगे, लेकिन राजपूत स्वभाव से एकता के विरोधी थे । 

● अत: वे मराठों के विरुद्ध एकजूट होकर कोई कदम नहीं उठा सके।

● 1735 ई. के बाद मराठों के राजपूताना के राज्यों में सैनिक अभियान और तेज हो गए ।

● मराठों ने राजपूत राज्यों के आपसी विवादों में किराये के बिचौलियों की भूमिका निभाई।

● 1752 ई. में मुगल बादशाह ने मराठों को अजमेर की सूबेदारी दे दी । अब अप्रत्यक्ष रुप से राजपूताना में मराठों की सत्ता स्थापित हो गई । 

● धीरे राजपूत शासक मराठों की अधीनता में चले गए । उनका मराठों से सम्बन्ध हो गया जो पहले मुगल बादशाह से था । 

● कालान्तर में जब भारत में मराठों का स्थान अंग्रेजों ने ले लिया- तब राजपूताना के राजपूत शासक अंग्रेजों की सम्प्रभुता के अधीन हो गये ।


सारांश

● उपरोक्त विवरण के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि 18वीं सदी के मध्य में भारत की राजनीतिक स्थिति अच्छी नहीं थी।

● मुगल साम्राज्य के कमजोर और धीरे-धीरे पतन की ओर बढ़ने के साथ-साथ अनेक क्षेत्रीय राजनीतिक शक्तियों का उदय भारत के राजनीतिक पटल पर हुआ । 

● बंगाल, अवध और हैदराबाद के महत्त्वाकांक्षी सामंतों ने अपनी अर्द्धस्वतंत्र रियासतें स्थापित कर लीं।

● ये रियासतें पहले मुगल सूबेदारों के अधीन थीं, जिन्होंने अब स्वतंत्रता का दावा किया था ।

● कुछ शक्तियों का उदय मुगल सत्ता के प्रति विद्रोह के परिणामस्वरूप हुआ ।

● इनमें मराठा, अफगान, रुहेले, जाट तथा पंजाब राज्य मुख्य हैं । 

● पेशवाओं के नेतृत्व में मराठा राज्य की सीमाएं महाराष्ट्र से निकलकर गुजरात व मालवा तक फैल गई ।

● मराठों ने दक्षिण के बजाय उत्तर भारत में साम्राज्य प्रसार पर ज्यादा ध्यान दिया।

● 1752 ई. में मराठों ने एक संधि द्वारा मुगल बादशाह व साम्राज्य की सुरक्षा का दायित्व स्वीकार कर लिया जिसके फलस्वरुप मराठा राज्य की सीमाएं पंजाब तक पहुँच गई, जिससे मराठा शक्ति का विनाश हुआ । 

● उत्तरी भारत में दोआब के क्षेत्र में रुहेला पठानों ने रुहेलखण्ड की स्थापना की ।

● दिल्ली व आगरा के निकट जाट राज्य की स्थापना भी इसी काल में हुई। 

● पंजाब में सिक्खों ने अपनी राजनीतिक स्थिति को सुदृढ़ किया । 

● केन्द्रीय नियंत्रण के कमजोर होने से मैसूर व राजपूत राज्यों ने भी नाममात्र की मुगल अधीनता से मुक्त होकर स्वतंत्र राज्यों की तरह कार्य करना शुरु कर दिया।

18वी सदी के मध्य तक केन्द्रीय सत्ता इतनी दुर्बल हो चुकी थी कि वह 1739 ई. में नादिरशाह के आक्रमण का सफल प्रतिरोध भी नहीं कर सकी।

इस आक्रमण से मुगलों की प्रतिष्ठा नष्ट हो गई।

● मुगल साम्राज्य की कमजोरी का लाभ मराठों के बाद विदेशी कम्पनियों ने उठाया । 

● जिनमें ईस्ट इण्डिया कम्पनी सबसे प्रमुख है।

● 16वीं सदी में भारत की राजनीतिक रिक्तता को भरने के लिए उत्तर-पश्चिम से किसी शक्ति का आगमन नहीं हुआ बल्कि वह शक्ति समुद्री मार्ग से भारत में आयी थी।

● जब प्रमुख भारतीय राजनीतिक शक्तियां उत्तरी भारत की राजनीति में उलझी हुई थीं, उस समय व्यापारिक कम्पनियों के रुप में विदेशी शक्तियां दक्षिणी और पूर्वी भारत में अपना प्रभाव स्थापित कर चुकी थीं।

 

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